महानगरीय चकाचौंध
तले हमारे देश का एक बड़ा तबका बड़े शहरों में अपना जीवन ज्यादा सुखी देखता है उत्तराखंड की
हमारी आज की नौजवान पीड़ी अपने गावो से लगातार कटती जा
रही है ।रोजी रोटी की तलाश में घर से निकला यहाँ का नौजवान अपने बुजुर्गो की
सुध इस दौर में नहीं ले पा रहा है ।यहाँ के गावो में आज बुजुर्गो की अंतिम पीड़ी
रह रही है और कई मकान बुजुर्गो के निधन के बाद सूने हो गए हैं ।आज आलम यह है दशहरा
, दीपावली ,होली सरीखे त्यौहार
भी इन इलाको में उस उत्साह के साथ नहीं मनाये जाते जो उत्साह बरसो पहले
संयुक्त परिवार के साथ देखने को मिलता था । हालात कितने खराब हो चुके
हैं इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है आज पहाड़ो में लोगो ने खेतीबाड़ी जहाँ छोड़ दी है
वहीँ पशुपालन भी इस दौर में घाटे का सौदा बन गया है क्युकि वन सम्पदा लगातार सिकुड़ती जा रही है
और माफियाओ,कारपोरेट और सरकार का काकटेल पहाड़ो की सुन्दरता
पर ग्रहण लगा रहा है ।पहाड़ो में बढ़ रहे इस पलायन पर आज तक राज्य की किसी भी सरकारों ने कोई
ध्यान नहीं दिया शायद इसलिए अब लोग दबी जुबान से इस पहाड़ी राज्य
के निर्माण और अस्तित्व को लेकर सवाल उठाने लगे हैं ।
आज उत्तराखंड बने 12 वर्ष हो गए हैं
लेकिन यहाँ जल , जमीन और जंगल का सवाल जस का तस बना हुआ है । स्थाई राजधानी तक
इन बारह वर्षो में तय नहीं हो पाई है । विकास की किरण देहरादून, हरिद्वार,हल्द्वानी के इलाको तक सीमित
हो गई है । नौकरशाही बेलगाम है तो चारो तरफ भय का वातावरण है । अपराधो का
ग्राफ तेजी से जहाँ बढ़ रहा है वहीँ बेरोजगारी का सवाल सबसे
बड़ा प्रश्न पहाड़ के युवक के सामने हो गया है । बिजली, पानी, सड़क जैसी बुनियादी
समस्याओ से पहाड़ के लोग अभी भी जूझ रहे हैं ।अस्पतालों में दवाई तो दूर
डॉक्टर तक आने को तैयार नहीं है । वहीँ जनप्रतिनिधि इन समस्याओ को दुरुस्त करने के
बजाए अपने विधान सभा छेत्रो से लगातार दूर होते जा रहे हैं । उन्हें भी अब पहाड़ी
इलाको के बजाए मैदानी इलाको की आबोहवा रास आने लगी है और शायद इसी के चलते राज्य के कई नेता अब
मैदानी इलाको में अपनी सियासी जमीन तलाशने लगे हैं ।राज्य में उर्जा प्रदेश, हर्बल स्टेट के
सरकारी दावे हवा हवाई साबित हो रहे हैं ।
जिस अवधारणा को लेकर उत्तराखंड राज्य की
लड़ाई लड़ी गई थी वह अवधारणा खोखली साबित हो रही है और शहीदों के सपनो का उत्तराखंड
अभी कोसो दूर है क्युकि इस दौर की सारी कवायद तो इस दौर में
अपनी कुर्सी बचाने और दूसरे को नीचा दिखाने और कारपोरेट के आसरे विकास के
चकाचौध की लकीर खींचने पर ही जा टिकी है जहाँ आम आदमी के सरोकारों से इतर मुनाफा कमाना ही
पहली और आखरी प्राथमिकता बन चुका है । ऐसे में हमारे देश के गाँव विकास की
दौड़ में कही पीछे छूटते जा रहे हैं और अपने उत्तराखंड की लकीर भी भला इससे अछूती
कैसे रह सकती है जहाँ सरकारे पलायन के दर्द को समझने से भी परहेज इस दौर
में करने लगी हैं । पहाड़ी क्षेत्रों में तेजी से हो
रहा पलायन रुकने का नाम नहीं ले रहा है. एक के बाद एक कर सभी गांव खाली होते जा
रहे हैं. लेकिन आज तक प्रदेश में बनी किसी भी पार्टी की सरकार ने कोई ठोस नीति
तैयार नहीं की है.
पौड़ी में भी कई गांव ऐसे हैं जो 90 प्रतिशत खाली हो चुके हैं जहां पर
अब केवल जंगली जानवर ही रहते हैं. प्रदेश का सबसे बड़ा जिला कहे जाने वाले पौड़ी
सरकारी आंकड़े भी पलायन के सच को उजागर करते हैं. लोगों का कहना है कि राजनीतिक दल
के पास पहाड़ों के विकास के लिये कोई ठोस नीति नही है.
पौड़ी जिले के कल्जीखाल, कोट, द्वारीखाल, जयहरीखाल, जैसे ब्लॉकों के चार
दर्जन से अधिक गांव में 90 प्रतिशत से भी अधिक लोग गांव छोड़कर जा चुके हैं. इनमें कई गांव
ऐसे हैं जहां पर एक या दो परिवार ही बचे हैं.
गौरतलब है कि उत्तर प्रदेश से अलग कर नया
उत्तराखंड राज्य इसलिए बनाया गया था ताकि इस पहाड़ी प्रदेश का विकास हो सके. लेकिन
अलग राज्य बनने के बाद भी हालत खराब होते चली गई है.
उत्तराखंड में पलायन त्रासदी बन गया है। सैकड़ों गांव खाली हो
गए। गांव में सिर्फ हमारे देवता है या बंजर पड़े खेत हैं।
वर्ष 2000 में उत्तराखंड के
अस्तित्व में आने के बाद से आज 16 सालों के बाद भी उत्तराखंड में व्यापक तौर पर
क्या बदला ये कहना मुश्किल है।
स्वास्थ का हाल ऐसा हैं कि पहाड़ की दूरदराज की जनता समय पर
इलाज न मिलने के कारण रास्तों पर दम तोड़ने पर मजबूर हैं या फिर मरीज़ों को
हल्द्वानी, बरेली, दिल्ली या लखनऊ रिफर किया जा रहा है। शिक्षा की स्थिति भी बहुत
अच्छी नही कहीं जा सकती। शिक्षा के क्षेत्र में जो संस्थान खुले भी हैं क्या उनमें
शिक्षा से ज्यादा ज़ोर मनी मेकिंग पर नहीं है। उत्तराखंड के सरोकारों से शायद ही
इनका कोई वास्ता हो। पिछले 15 सालों में उत्तराखंड में एक ऐसा स्थानीय माफिया
तंत्र विकसित हुआ है जिसने सत्ता के साथ मिलकर अकूत पैसा बनाने का काम किया है।
क्या किसी राज्य में विकास का अक्स और भविष्य की दशा और दिशा देखने के लिये गुज़रा
हुए 16 सालों का वक्त कुछ कम तो नहीं।
पहचान और विकास
की चाह की वजह से पहाड़ों में जिस जनांदोलन की शुरुआत हुई थी, वो 12 साल में ही
निरर्थक हो गया। आज विडंबना यह है कि अलगाव की वो काली छाया उत्तराखंड के पहाड़ों
को आहिस्ता-आहिस्ता अपनी चपेट में ले रही है।1000 में से 350.71 प्रदेशवासी
अच्छी शिक्षा और नौकरी की तलाश में दूसरे रायों में जा चुके हैं, जबकि 7.014 फीसदी लोग दूसरे देशों की ओर
पलायन कर चुके हैं। पलायन के जो आंकड़े सामने आए हैं उनसे राज्य में अपनाए गए
विकास के मॉडल पर ही सवाल खड़े हो रहे हैं।
मालूम हो कि पिछले दिनों केंद्र
सरकार के नेशनल सैंपल सव्रे ऑर्गेनाइजेशन (एनएसएसओ) की रिपोर्ट ‘माइग्रेशन इन इंडिया’ में यह दिलचस्प तथ्य सामने आया था
कि उत्तराखंड में गांवों से नहीं बल्कि शहरों से यादा पलायन हो रहा है। माइग्रेशन
इन इंडिया रिपोर्ट के मुताबिक उत्तराखंड में प्रति हजार लोगों पर शहरों से 486 लोग पलायन कर रहे हैं, जबकि ग्रामीण क्षेत्रों में यह
तादाद 344
व्यक्ति प्रति हजार है।
इसमें बड़ा हिस्सा उन लोगों का है जो रोजगार की तलाश में अपना गांव-शहर छोड़ रहे
हैं। शहरों से प्रति हजार पुरुषों में 397 तो
प्रति हजार महिलाओं में 597 पलायन
कर रही हैं,
जबकि गांवों में तस्वीर
यह है कि प्रति हजार पुरुषों में से 151 और
प्रति हजार महिलाओं में 539 महिलाएं
गांवों से पलायन कर रही हैं।
बीमार होने पर डाक्टर नहीं, बच्चों के लिए शिक्षक नहीं, जानवरों के
लिए दवा-दारू नहीं, खेतों में
हाड़तोड़ मेहनत के बावजूद छह माह का भी अनाज नहीं, पेयजल के नाम पर बिछी पाईप लाईनों का अता-पता नहीं, खेतों में की गई मेहनत पर जंगली जानवरों का डाका, सूर्यास्त के बाद का समय छोड़िए भरे-पूरे दिन में भी बाघ के
हमले का डर, इस सबमें कि दुखड़ा सुनने के लिए न
प्रधान-न पटवारी। सोचिए, ऐसे हालात
में गांव छोड़कर किसी शहरी बस्ती में जाने के सिवा भी चारा क्या रह जाता है...! यह
पलायन नहीं है,
एक मजबूरी है अपने जीवन को
सुरक्षित बचाने की।
16-17 जून 2013 को आसमान
से बरपे कहर के बाद यह मजबूरी भी अब जरूरी हो गई है। इस जलप्रलय के बाद पहाड़ की
नदियां खूंखार लगने लगी हैं, घाटियां
भयानक नजर आने लगी हैं, हिमशिखर
श्वेत प्रेत से प्रतीत हो रहे हैं, आसमान में
गरजते बादल काल की दहाड़ सा डरा रहे हैं। चोटियां न जाने कौन पत्थर लुढ़ककर जान ले
ले...कहीं भी प्राण रक्षा के आसार नजर नहीं आ रहे। हर पल मौत के आगोश में लग रहा
है। गत दो-तीन सालों से यह सब हो रहा था, लेकिन इस
बार जब लोग भगवान की चौखट पर भी सुरक्षित नहीं बचे, तो आम चौखटों की क्या बिसात...।
पिछली
दो बरसातें जब राज्य के पहाड़ी क्षेत्रों में कहर ढाती रहीं, तब वहां की सरकार नदारद थी.
संकट
के उस वक्त में अधिकांश विधायकों से लेकर मंत्रियों तक कोई भी अपने निर्वाचन
क्षेत्र में मौजूद नहीं था. 21वीं सदी के उत्तराखंड में
तीन-तीन महीने तक खाद्यान्न नहीं पहुंच पाया, आठ महीने में
भी सड़कें ठीक नहीं हो पाईं. पहाड़ों के हालात इतने बदतर हो चुके हैं कि हर साल
हजारों लोग वहां से मैदानों की ओर पलायन कर रहे हैं. गांव उजड़ रहे हैं और पूरा
पहाड़ इतिहास के सबसे बड़े विस्थापन के मुहाने पर खड़ा है. पहाड़ों के प्रति यह
उपेक्षा राज्य बनने के बाद ही शुरू हुई है.
लगभग
सारे विधायकों और मंत्रियों ने अपने आशियाने देहरादून या हल्द्वानी में बना लिए
हैं. एक भी विधायक अपने निर्वाचन क्षेत्र में रहने को तैयार नहीं है. उत्तराखंड के
सांसदों के घर दिल्ली में तो हैं पर पहाड़ में नहीं. संसदीय क्षेत्र या विधानसभा
क्षेत्र उनके लिए पर्यटन स्थल बनकर रह गए हैं. विधायकों, मंत्रियों और सांसदों की देखादेखी जिला पंचायत अध्यक्ष और ब्लॉक प्रमुखों
से लेकर ग्राम प्रधान तक या तो मैदानों में उतर आए हैं या फिर गांव छोड़कर जिला
मुख्यालयों में डेरे जमाए बैठे हैं.
देखा जाए तो पहाड़ का हमेशा ही कठिन जीवन रहा है, लेकिन विकट दुष्वारियों के समक्ष इसके बाशिंदों ने हार नहीं
मानी। दूर-दराज मैदानी भागों में अथवा फौज में नौकरी कर लोगों ने घर-परिवार चलाए, पर अपने पूर्वजों की थाती को नहीं छोड़ना मुनासिब नहीं समझा।
हालांकि धीरे-धीरे सुविधाओं की ललक और बदलते राष्ट्रीय परिवेश की हवा लोगों को
गांवों से शहरों की ओर खींचने को मजबूर करने लगी।
पहाड़वासियों की सुविधाओं की यह तलाश उनकी बेहद मजबूरी का फैसला
थी, जिसे पलायन कहकर पुकारा गया। इस पलायन
को रोकने के नाम पर सियासतदां, अधिकारी और
कथित समाजसेवी सभी मौके के हिसाब से आलाप-प्रलाप करते रहे, लेकिन इस पलायन की तह तक जाकर उसका निदान करने की ठोस
कार्ययोजना कतई नहीं तैयार की गई। लोगों के अपने घरबार की आजाद हवा छोड़कर शहरों के
संकुचित क्षेत्र में आ बसने के पीछे के दर्द को समझा तक नहीं गया।लंबे आंदोलन और
शहादत के बाद राज्य मिला, उम्मीद थी
कि पृथक राज्य में उनकी विकास की कल्पनाओं को पंख लगेंगे और पड़ोस के पहाड़ी राज्य
हिमाचल सरीखा उत्तराखंड भी तरक्की की राह सरपट दौडे़गा। दौड़ता भी क्यों नहीं, प्रकृति ने इस क्षेत्र को नियामतें देने में कोई कंजूसी जो
नहीं की थी।
पहाड़वासियों को अलग राज्य तो मिल गया, पर विरासत में वह संस्कार और सोच नहीं मिल पाए जो ‘कालापानी’ को देवभूमि
बना पाते। उत्तर प्रदेश से राज्य को मिले अधिकारी-कर्मचारी पहाड़ चढ़ने को राजी नहीं
हुए। यहां तक कि जो मुलाजिम पहाड़ी मूल के भी थे, उन्होंने राज्य के मैदानी हिस्सों में ही पांव जमाए और पहाड़ से संबंध
सिर्फ मूल निवास-जाति प्रमाण पत्र लेने या फिर किसी ‘दैवी कृपा’ की चाह में
अपने कुल देवी-देवता के दरबार में एक-आध घंटा जाकर मत्था टेकने तक ही सीमित रहा।
पहाड़ स्थित अपने घर-गांव से कोई मोह नहीं, बिछोह की
कोई तड़फन नहीं।
बीमार होने पर डाक्टर नहीं, बच्चों के लिए शिक्षक नहीं, जानवरों के
लिए दवा-दारू नहीं, खेतों में
हाड़तोड़ मेहनत के बावजूद छह माह का भी अनाज नहीं, पेयजल के नाम पर बिछी पाईप लाईनों का अता-पता नहीं, खेतों में की गई मेहनत पर जंगली जानवरों का डाका, सूर्यास्त के बाद का समय छोड़िए भरे-पूरे दिन में भी बाघ के
हमले का डर, इस सबमें कि दुखड़ा सुनने के लिए न
प्रधान-न पटवारी। सोचिए, ऐसे हालात
में गांव छोड़कर किसी शहरी बस्ती में जाने के सिवा भी चारा क्या रह जाता है...! यह
पलायन नहीं है,
एक मजबूरी है अपने जीवन को
सुरक्षित बचाने की।
16-17 जून 2013 को आसमान
से बरपे कहर के बाद यह मजबूरी भी अब जरूरी हो गई है। इस जलप्रलय के बाद पहाड़ की
नदियां खूंखार लगने लगी हैं, घाटियां
भयानक नजर आने लगी हैं, हिमशिखर
श्वेत प्रेत से प्रतीत हो रहे हैं, आसमान में
गरजते बादल काल की दहाड़ सा डरा रहे हैं। चोटियां न जाने कौन पत्थर लुढ़ककर जान ले
ले...कहीं भी प्राण रक्षा के आसार नजर नहीं आ रहे। हर पल मौत के आगोश में लग रहा
है। गत दो-तीन सालों से यह सब हो रहा था, लेकिन इस
बार जब लोग भगवान की चौखट पर भी सुरक्षित नहीं बचे, तो आम चौखटों की क्या बिसात...।