बगवाल
वैष्णवी माँ वाराही का मन्दिर भारत में गिने चुने मन्दिरों में से है। पौराणिक कथाओं के आधार पर हिरणाक्ष व अधर्मराज पॄथ्वी को पाताल लोक ले जाते हैं। तो पृथ्वी की करूण पुकार सुनकर भगवान विष्णु वाराह का रूप धारण कर पृथ्वी को बचाते है। तथा उसे वामन में धारण करते है। तब से पृथ्वी स्वरूप वैष्णवी #वाराही कहलायी गई। यह वैष्णवी आदि काल से गुफा गहवर में भक्त जनों की मनोकामना पूर्ण करती आ रही है।
महाभारत में पाण्डवों के अज्ञातवास से लेकर अनेक पौराणिक धार्मिक एवं ऐतिहासिक घटनाओं से जुडा हुआ है।
#देवीधुरा का #बग्वाल मेला कई रहस्यों और रोमांच को अपने दामन में समेटे हुए हैं। मां वाराही की मूर्ति का रहस्य भी लोगों में रोमांच की अनुभूति कराता है। दरअसल मंदिर के गर्भगृह में #ताम्रपेटिका में रखी मां वाराही की मूर्ति को खुली आंखों से देखने की परंपरा नहीं है। आज तक किसी ने भी मां वाराही की मूर्ति को नहीं देखा है। मंदिर के पुजारी मां वाराही की मूर्ति को आंखों में पट्टी बांध कर स्नान कराते हैं। इस वजह से अभी तक ये भी पता नहीं चल सका है कि मूर्ति किस धातु की बनी हुई है।
बग्वाल मेला आधुनिक समय में पाषाण काल की याद दिलाता है। यह मेला कई रहस्यों से भरा हुआ है। मुख्य मंदिर में तांबे की पेटी में मां वाराही की मूर्ति रखी जाती है। लेकिन इस मूर्ति के दर्शन आज तक कोई नहीं कर सका है। इस संबंध यहां कई किंवदंतियां प्रचलन में हैं। कहा जाता है कि मां दिगंबरा शक्ति है। ऐसे में भक्त का मां को वस्त्रत्त्विहीन देखना धर्म और नीति विरूद्ध है। एक अन्य किंवदंती के अनुसार एक बार यह मूर्ति चोरी हो गई थी। इसके बाद मूर्ति चुरा कर ले जाने वाले व्यक्ति की दृश्य शक्ति खो गई थी। तब उस व्यक्ति ने मां वाराही की मूर्ति को वापस मंदिर में रख दिया था। बग्वाल के दूसरे दिन मां वाराही की मूर्ति को स्नान कराया जाता है। इसके अलावा भी यहां कई रहस्य हैं। इनमें से दूसरी है #भीमशिला। यह विशाल शिलाखंड बीच में से दो हिस्सों में इस तरह से बंटा हैं, मानो उसे किसी आरी से काटा गया हो। कहा जाता है कि एक बार पांडव इस शिला के ऊपर चौपड़ खेल रहे थे। उनके साथ मां वाराही ग्वालन के रूप में बैठी हुई थी। इसी बीच भीम को क्रोध आ गया। इसके बाद ग्वालन शिला के भीतर समा गईं। भीम ने ग्वालन की तलाश में इस शिला के दो हिस्से कर दिए लेकिन वह भूल गए कि उनके सभी भाई शिला के ऊपर बैठे चौपड़ खेल रहे हैं। इसी दौरान शिला दो भागों में विभक्त होकर गिरने लगी थी। भीम ने पास में रखी एक छोटी शिला को जोड़ पर रख दिया, इससे शिला गिरने से बच गई।
कुमाऊं के हृदय में चारों ओर से वनाच्छादित पर्वत मालाओं की गोद में बसा देवीधुरा ऐसा दिव्य एवं रमणीक स्थल है। जहां आने पर मुख्य वाराही धाम के चमात्कारों में खो जाता है। प्रति वर्ष श्रावणी पूर्णिमा यानि रक्षाबंधन के अवसर पर यहां परमाणु युग में पाषाण युद्ध बगवाल खेली जाती है। शताब्दियां बीतती चली गई मां बज वाराही के आंचल में बगवाल कब से खेली जा रही है। इसका कोई ऐतिहासिक प्रमाण नहीं है।
किंतु कुमाऊं के चम्पावत, नैनीताल व अल्मोड़ा जिले में वालिक, लमगड़िया, गहड़वाल एंव चम्याल खामों से जुड़े पड़तीदार गांवों के हजारों लोग बगवाल को अपने पूर्वजों की विरासत मानते हुए इस पाषाण आस्था को पीढ़ी दर पीढ़ी एक दूसरे को सौंपते आ रही हैं। शताब्दियां बीत गई हैं लेकिन
बगवाल का स्वरूप पूर्ववत बना हुआ है। बगवाल में भाग लेना एंव उसे देखना मां वाराही के प्रति लोक आस्था को प्रकट करते हैं। यही वहज है कि कुमाऊं के देश विदेश में रहने वाले लोग मां वाराही के दरबार में होने वाली बगवाल में शामिल होने अवश्य आते हैं। बगवाल में शामिल होने वाले लोगों को एक माह प्रयत्न से अपने आहार व विचार को पूर्ण शात्विक रखना पड़ता है। मां वाराही के प्रति सच्ची श्रद्धा लेकर आया उसका उपासक कभी खाली हाथ नहीं लौटता है। यही वजह है कि इस परमाणु युग में भी श्रद्धालुओं की आस्था में कोई कमी नहीं आई है। मान्यता है कि किसी समय देवीधुरा के सघन बन में बावन हजार वीर और चौंसठ योगनियों के आतंक से मुक्ति देकर स्थानीय जन से प्रतिफल के रुप में नर बलि की मांग की, जिसके लिए निश्चित किया गया कि पत्थरों की मार से एक व्यक्ति के खून के बराबर निकले रक्त से देवी को तृप्त किया जायेगा, पत्थरों की मार प्रतिवर्ष श्रावणी पूर्णिमा को आयोजित की जाएगी । इस प्रथा को आज भी निभाया जाता है । लोक विश्वास है कि क्रम से महर और फव्यार्ल जातियों द्वारा चंद शासन तक यहाँ श्रावणी पूर्णिमा को प्रतिवर्ष नर बलि दी जाती थी ।
इतिहासकारों का मानना है कि महाभारत में पर्वतीय क्षेत्रों में निवास कर रही एक ऐसी जाति का उल्लेख है जो अश्म युद्धमें प्रवीण थी तथा जिसने पाण्डवों की ओर से महाभारत के युद्ध में भाग लिया था । ऐसी स्थिति में पत्थरों के युद्ध की परम्परा का समय काफी प्राचीन ठहरता है । कुछ इतिहासकार इसे आठवीं-नवीं शती ई. से प्रारम्भ मानते हैं । कुछ खास जाति से भी इसे सम्बिन्धित करते हैं ।
बगवाल को इस परम्परा को वर्तमान में महर और फव्यार्ल जाति के लोग ही अधिक सजीव करते हैं । इनकी टोलियाँ ढोल, नगाड़ो के साथ किंरगाल की बनी हुई छतरी जिसे छन्तोली कहते हैं, सहित अपने-अपने गाँवों से भारी उल्लास के साथ देवी मंदिर के प्रांगण में पहुँचती हैं । सिर पर कपड़ा बाँध हाथों में लट्ठ तथा फूलों से सजा फर्रा-छन्तोली लेकर मंदिर के सामने परिक्रमा करते हैं । इसमें बच्चे, बूढ़े, जवान सभी बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेते हैं । बगवाल खेलने वाले द्यौके कहे जाते हैं । वे पहले दिन से सात्विक आचार व्यवहार रखते हैं । देवी की पूजा का दायित्व विभिन्न जातियों का है । फुलारा कोट के फुलारा मंदिर में पुष्पों की व्यवस्था करते हैं ।
पूर्णिमा को भक्तजनों की जयजयकार के बीच डोला देवी मंदिर के प्रांगण में रखा जाता है । चारों खाम के मुखिया पूजन सम्पन्न करवाते है । गढ़वाल प्रमुख श्री गुरु पद से पूजन प्रारम्भ करते है । चारों खामों के प्रधान आत्मीयता, प्रतिद्वेंदिता, शौर्य के साथ बगवाल के लिए तैयार होते हैं ।
मंदिर का पुजारी बगवाल प्रारम्भ होने की घोषणा शुरु करता है । इसके साथ ही खामों के प्रमुख की अगुवाई में पत्थरों की वर्षा दोनों ओर से प्रारम्भ होती है । ढ़ोल का स्वर ऊँचा होता जाता है, छन्तोली से रक्षा करते हुए दूसरे दल पर पत्थर फेंके जाते हैं । धीरे-धीरे बगवाली एक दूसरे पर प्रहार करते मैदान के बीचों बीच बने ओड़ (सीमा रेखा) तक पहुँचने का प्रयास करते हैं ।
फर्रों की मजबूत रक्षा दीवार बनायी जाती है । जिसकी आड़ से वे प्रतिद्वन्दी दल पर पत्थरों की वर्षा करते हैं । पुजारी को जब अंत:करण से विश्वास हो जाता है कि एक मानव के रक्त के बराबर खून बह गया होगा तब वह ताँबें के छत्र और चँबर के साथ मैदान में आकर बगवाल सम्पन्न होने की घोषणा करता है ।
देवीधुरा मंदिर के पृष्ठभाग में स्थित भीम शिला का आध्यात्मिक और पौराणिक महत्व है। मान्यता के अनुसार इस शिला पर बैठ कर पांडव चौपड़ खेला करते थे। ये भी कहा जाता है कि शिला पर आज भी भीम के पंजे के निशान मौजूद हैं।
मां वाराही मंदिर के पश्चिम में एक विशालकाय शिला है। इसे भीमशिला के नाम से जाना है। बग्वाल मेले के अलावा अन्य दिन भी लोग इस शिला को देखने पहुंचते हैं। देवीधुरा मंदिर के पीठाचार्य कीर्तिबल्लभ जोशी और गहड़वाल खाम के प्रतिनिधि दीपक सिंह बिष्ट ने कहा कि बताया जाता है कि पांडव यहां अज्ञातवास के दौरान पहुंचे थे। उनका कहना है कि पांडवों के आने से पूर्व ही मां वाराही मंदिर की स्थापना हो गई होगी। पीठाचार्य का कहना है कि अज्ञातवास के दौरान पांडव शिला पर बैठ कर चौपड़ खेला करते थे। शिला में चौपड़ की चौकियां अभी भी स्थित हैं। मान्यता के अनुसार एक बार पांडव यहां चौपड़ खेल रहे थे।
इसी दौरान शक्ति स्वरूप मां वाराही ग्वालन के रूप में बैठी हुई थी। किसी प्रसंग पर भीम को क्रोध आया, इससे ग्वालन शिला के भीतर समा गई। भीम ने ग्वालन की तलाश को शिला के दो हिस्से कर दिए। लेकिन वो भूल गए कि उनके भाई शिला के ऊपर बैठ कर चौपड़ खेल रहे हैं। शिला दो भागों में बंट कर गिरने लगी। तब भीम ने पास में पड़ी एक छोटी शिला को टूटने वाली शिला के जोड़ पर रख दिया, इससे शिला गिरने से बच गई। आज भी इस शिला के एक भाग पर थपथपाने पर खोखली होने का एहसास होता है।
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देवीधुरा स्थित मुचकंद ऋषि आश्रम
देवीधुरा मंदिर स्थित मुचकंद ऋषि आश्रम (मच्वाल) को मां वाराही का मायका माना जाता है। मुचकंद ऋषि के प्रताप से कालयवन राक्षस का अंत हुआ था। राक्षसों से देवताओं की रक्षा करने पर मां वाराही ने मुचकंद ऋषि को साल में एक बार उनके आश्रम में आने का वचन दिया था। तब से वचनबद्ध मां वाराही की शोभा यात्रा बग्वाल के दूसरे दिन आश्रम तक निकाली जाती है।
देवीधुरा के मां वाराही मंदिर के ठीक सामने सात हजार फीट की ऊंचाई पर मच्वाल स्थित है। इस स्थान पर ऐड़ी देवता और भगवान शंकर के मंदिर हैं। मां वाराही मंदिर के पीठाचार्य कीर्ति बल्लभ जोशी बताते हैं कि मान्यता के अनुसार मुचकंद ऋषि देवी मां के अनन्य भक्त थे। एक वृतांत के अनुसार देवताओं और असुरों के बीच संग्राम चल रहा था।
युद्ध के दौरान कालयवन राक्षस देवताओं का पीछा कर रहा था। तब भगवान श्रीकृष्ण समेत तमाम देवता भाग कर इसी शिखर पर पहुंचे। शिखर में मुचकंद ऋषि निद्रा में लीन थ। श्रीकृष्ण ने स्वयं का पीतांबर मुचकंद ऋषि को ओढ़ा दिया। स्वयं इसी शिखर के पाताल में बने सरोवर में छिप गए। शिखर से गुजरते हुए कालयवन राक्षस ने पीतांबर ओढ़े ऋषि को कृष्ण समय कर लात मार दी। इससे मुचकंद ऋषि की तपस्या भंग हो गई।
मुचकंद ऋषि को वरदान प्राप्त था कि जो उनकी निद्रा भंग करेगा, वो भस्म हो जाएगा। फलस्वरूप कालयवन राक्षस वहीं भस्म हो गया। इस के बाद देवताओं की सहायता करने पर मां वाराही ने वर्ष में एक बार इस शिखर में आ कर मुचकंद ऋषि को दर्शन देने का वचन दिया। तब से मान्यता है कि वचनबद्ध मां वाराही साल में एक बार मच्वाल जरूर जाती है।
बग्वाल के दूसरे दिन मां वाराही की शोभा यात्रा मच्वाल तक निकाली जाती है। जहां मां वाराही मुचकंद ऋषि को दर्शन देती हैं। इस वजह से इसे मां वाराही का मायका भी कहा जात है।