भारत में जूते का सबसे मंहगा ब्रांड है क्लार्क। इसे किसने स्थापित किया? एक मोची ने। जूतों का भारत में सबसे बड़ा ब्रांड कौन सा है? बाटा। इसे किसने स्थापित किया एक मोची ने। लेकिन इन दोनों ब्रांड के संस्थापक मोची भारत के नहीं थी। ब्रिटेन और हंगरी के मोची थे।
थॉमस बाटा जिन्होंने बाटा को एक ब्रांड बनाया उनकी आठ पीढ़ियों से घर में जूते बनाने का काम हो रहा था। इसी तरह क्लार्क शूज के संस्थापक भी गली में बैठकर जूता गांठते थे वैसे ही जैसे भारत की गलियों में मोची जूता गांठते बनाते हैं।
मेरे मन में सवाल ये है कि भारत में कोई मोची जूते का कारोबारी क्यों नहीं हो पाया ? वह अपना ब्रांड क्यों विकसित नहीं कर पाया जैसे हल्दीराम एक ब्राण्ड के तौर पर विकसित हो गया ? वह इसलिए क्योंकि इस देश साम्यवादियों ने जातिवाद की ऐसी बहस छेड़ी कि हर जाति के परंपरागत व्यापार को दोयम दर्जे का बताना शुरु कर दिया। जातियों में जो व्यापार था वह भारत की अर्थव्यवस्था की रीढ़ भी था और परमानेन्ट रोजगार गारंटी योजना भी। न किसी सरकार की जरूरत थी, न किसी योजना की। सब काम ठीक चल रहा था तभी अंग्रेजों के एजंट वामपंथी बुद्धिजीवी और फिर बाद में दलित बुद्धिजीवी घुस गये और उन्होंने जातीय रोजगार को ब्राह्मणवादी शोषण और अपमान बताना शुरु कर दिया। नतीजा, लोग अपने परंपरागत रोजगार को उन्नत करने की बजाय उससे दूर होना शुरु हो गये।
इसका सीधा फायदा पहले अंग्रेज बहादुर को मिला और फिर बाद में दुनिया की बहुराष्ट्रीय कंपनियों को जो इन्हें विभिन्न शोध संस्थानों के माध्यम से पैसा देकर बुद्धिजीवी बना रही थीं। ये जातिवादी बहस करनेवाले लोग असल में बड़ी कंपनियों के पेड वर्कर हैं जो लोगों का व्यापार छीनकर कंपनियों को हवाले करने का काम करते हैं। हमारे यहां जातीय शोषण का जो दलित एजंडा है, वह बड़ी कंपनियों की मदद से चलाया जानेवाला व्यापार शोषण अभियान है ताकि बड़ी कंपनियों को फायदा पहुंचे और आम आदमी अपने परंपरागत रोजगार से अलग होकर दर दर की ठोकरे खाये।
थॉमस बाटा जिन्होंने बाटा को एक ब्रांड बनाया उनकी आठ पीढ़ियों से घर में जूते बनाने का काम हो रहा था। इसी तरह क्लार्क शूज के संस्थापक भी गली में बैठकर जूता गांठते थे वैसे ही जैसे भारत की गलियों में मोची जूता गांठते बनाते हैं।
मेरे मन में सवाल ये है कि भारत में कोई मोची जूते का कारोबारी क्यों नहीं हो पाया ? वह अपना ब्रांड क्यों विकसित नहीं कर पाया जैसे हल्दीराम एक ब्राण्ड के तौर पर विकसित हो गया ? वह इसलिए क्योंकि इस देश साम्यवादियों ने जातिवाद की ऐसी बहस छेड़ी कि हर जाति के परंपरागत व्यापार को दोयम दर्जे का बताना शुरु कर दिया। जातियों में जो व्यापार था वह भारत की अर्थव्यवस्था की रीढ़ भी था और परमानेन्ट रोजगार गारंटी योजना भी। न किसी सरकार की जरूरत थी, न किसी योजना की। सब काम ठीक चल रहा था तभी अंग्रेजों के एजंट वामपंथी बुद्धिजीवी और फिर बाद में दलित बुद्धिजीवी घुस गये और उन्होंने जातीय रोजगार को ब्राह्मणवादी शोषण और अपमान बताना शुरु कर दिया। नतीजा, लोग अपने परंपरागत रोजगार को उन्नत करने की बजाय उससे दूर होना शुरु हो गये।
इसका सीधा फायदा पहले अंग्रेज बहादुर को मिला और फिर बाद में दुनिया की बहुराष्ट्रीय कंपनियों को जो इन्हें विभिन्न शोध संस्थानों के माध्यम से पैसा देकर बुद्धिजीवी बना रही थीं। ये जातिवादी बहस करनेवाले लोग असल में बड़ी कंपनियों के पेड वर्कर हैं जो लोगों का व्यापार छीनकर कंपनियों को हवाले करने का काम करते हैं। हमारे यहां जातीय शोषण का जो दलित एजंडा है, वह बड़ी कंपनियों की मदद से चलाया जानेवाला व्यापार शोषण अभियान है ताकि बड़ी कंपनियों को फायदा पहुंचे और आम आदमी अपने परंपरागत रोजगार से अलग होकर दर दर की ठोकरे खाये।
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