Saturday 2 June 2018

हम सब अपने बच्चों के हत्यारे हैं

क्या कभी आपने दसवीं के किसी बच्चे का परीक्षाफल आने के बाद आत्महत्या करने से पहले लिखा गया आखिरी पत्र पढ़ा है, जिसे पुलिस वाले ‘सुसाइड नोट’ कहते हैं और जो उनके लिए बहुत कीमती दस्तावेज होता है। मैंने जब भी ऐसे पत्र देखे हैं, पढ़ने से पहले ही मेरा गला रुंधने लगता है। पल भर में ही मेरी शिराएं शिथिल पड़ जाती हैं और आंखों में आंसू उमड़ आते हैं। मैं पहला वाक्य पढ़ता हूं - 'पापा, मां, मुझे माफ कर देना। मैं आपके सपनों को सच नहीं कर पाई। मैं आपकी उम्मीदों पर खरी नहीं उतरी। मैंने आपको बहुत दुख दिए। मैं जा रही हूं हमेशा के लिए।' इतना पढ़ने तक मेरे हलक में फंसा हुआ गोला और भारी हो जाता है और मैं रो पड़ता हूं। एक दसवीं में पढ़नेवाली पंद्रह साल की बच्ची सिर्फ इसलिए आत्महत्या कर ले कि उसके परीक्षा में अच्छे नंबर नहीं आए और फेल होकर वह कैसे अपने मां-बाप का सामना करेगी, इससे बड़ी क्या त्रासदी हो सकती है? यह त्रासदी सिर्फ उस परिवार की नहीं, बल्कि हमारे समाज और हमारे राष्ट्र की है और इसके लिए मैं आत्महत्या करने वाली बच्ची के माता-पिता, उसके शिक्षक, स्कूल के साथ-साथ पूरे समाज को जिम्मेदार मानता हूं।
परीक्षा में फेल होने या कम नंबर आने के कारण आत्महत्या जैसा कदम उठाने को मजबूर होने वाले बच्चे बहुत मासूम होते हैं। बहुत संवेदनशील होते हैं। वे आत्महत्या नहीं कर रहे होते हैं, बल्कि यह उनकी हत्या हो रही होती है। इस हत्या के लिए सबसे पहले और सबसे ज्यादा उनके माता-पिता ही दोषी होते हैं। एक बच्ची, जो अपने सुसाइड नोट में 'मुझे माफ कर देना पापा' लिख कर चली जाती है, उसके पापा यह पंक्ति पढ़ कैसे जिंदा बचे रह सकते हैं। पापाओं का ही तो यह काम है कि वे सुनिश्चित करें कि उनकी बेटी को किसी तरह की कोई चिंता या तकलीफ नहीं है। परीक्षाओं के दिनों में तो उन्हें और सतर्क रहने की जरूरत है, क्योंकि उनकी ओर से बच्चे पर दबाव नहीं भी है, तो दूसरी जगहों से ऐसे दबाव का खतरा तो बना ही रहता है। दबाव साथ में पढ़ने वाले बच्चों, शिक्षकों और समाज का भी तो होता है। पापाओं का ही तो यह फर्ज है कि वे बच्चों को प्यार से समझाएं कि एक परिपूर्ण जीवन जीने के लिए दसवीं में गणित के पेपर में आने वाले अंकों की कोई भूमिका नहीं होती। मदर टेरेसा को मदर टेरेसा बनने के लिए हाईस्कूल में गणित के नंबरों ने कोई मदद नहीं की थी। दुनिया में बेशुमार लोग है, जो हाईस्कूल में अच्छे अंक लाए बिना में सफल और आनंदपूर्ण जीवन जी पाए। पापाओं को अपनी बच्चियों को बताना चाहिए कि बेटी तुम अगर अपने पापा को खुश करना चाहती हो, तो परीक्षा से पहले भी मुस्कराते हुए स्कूल जाओ और परीक्षा के बाद भी मुस्कराते हुए स्कूल से आओ। लेकिन मैं देखता हूं कि क्या पापा और क्या ममा, सभी अपने बच्चों पर डंडा लेकर पिले होते हैं कि हाईस्कूल के बोर्ड एग्जाम में नंबर नहीं आए, तो पूरी लाइफ खराब हो जाएगी। हमारा सारा पैसा डूब जाएगा। हमने जो तुम्हारे लिए सपना देखा है कि बड़ी होकर तुम हमारे सपने पूरे करोगी, वह सपना टूट जाएगा। सोचिए जरा, पापा-मम्मी की ऐसी बातों से बच्चे कितने दबाव में आ जाते होंगे? अगर ऐसे दबाव में पेपर खराब हो गया और फेल होने की नौबत आ ही गई, तो कौन बच्चा जिंदा रहने की हिम्मत कर पाएगा।
बच्चों की हत्या के लिए मैं उन स्कूलों को भी जिम्मेदार मानता हूं, जिन्होंने शिक्षा को मुनाफा कमाने के धंधे में बदल दिया है। आज प्राइवेट स्कूलों और प्राइवेट अस्पतालों के बीच कोई फर्क नहीं रह गया है। अस्पतालों में अगर कसाई बने डॉक्टरों का पहला धर्म रोगियों को उपचार देकर निरोग करना न होकर इलाज के नाम पर उनसे ज्यादा से ज्यादा पैसा ऐंठना है, तो स्कूलों में प्रशासन और शिक्षकों का पहला धर्म बच्चों को ज्ञान देकर शिक्षित करना न होकर उनसे अधिकतम पैसा कमाना है। ज्यादा पैसा कमाने के लिए जरूरी है कि स्कूलों में दाखिले का एक हौवा हो। दाखिला तभी मिलेगा, जब बच्चे जिले, शहर, राज्य और राष्ट्र के टॉपर बनें। बच्चों को लगातार बेहिसाब दबाव में रखा जाता है। जितने टॉपर बनते हैं, स्कूल उतने बड़े इश्तेहार शहरभर में लगाते हैं, ताकि लोग अपने बच्चों को भी टॉपर बनाने उनके पास लाएं, वे और ज्यादा मुनाफा कमाएं।
वृहत्तर परिप्रेक्ष्य में देखा जाए, तो हमारा पूरा समाज ही ईर्ष्या, प्रतिस्पर्धा, जीत, हर हाल में जल्दी से जल्दी सफलता, दंद-फंद, दौड़-भाग, तनाव, दबाव, गुस्सा, मारपीट, इन्हीं सबमें फंसा हुआ है। चूंकि पिछली पीढ़ी के जीवन में यही सब रहा है, इसलिए अगली पीढ़ी को भी विरासत में यही मिल रहा है। लेकिन माता-पिता को समझने की जरूरत है कि पूरे समाज को तो सुधारा नहीं जा सकता, पर कम से कम घर की चारदीवारी के भीतर तो वे माहौल में प्यार और सुकून भर सकते हैं। बच्चों के जीवन और सोचने के ढंग पर सबसे ज्यादा प्रभाव माता-पिता का पड़ता है। अगर माता-पिता यह समझ जाएं कि उनके लिए ज्यादा अहम बच्चों की खुशियों से भरा स्वस्थ व संतुलित जीवन है, न कि उनके दसवीं-बारहवीं के अंक, तो इतने भर से ही वे हत्यारे बनने से बच सकते हैं।

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